Natasha

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राजा की रानी

फिर नसैनी के सहारे चढ़ना पड़ा, देखा कि वह स्त्री है। उमर पचीस-तीस से ज्यादा न होगी, दो बच्चे उसके पास पड़े सो रहे हैं। पति नहीं है- वह पिछली साल अरकाटी के फेर में पड़कर, दूसरी किसी अपेक्षाकृत कम उमर की औरत के साथ, आसाम के चाय के बगीचे में काम करने चला गया है।


इस गाड़ी में और भी पाँच-छै स्त्री-पुरुष मौजूद थे, उन्होंने उसके पाषाण-हृदय पति की निन्दा करने के सिवा रोगी की कोई भी सहायता नहीं की। पंजाबी डॉक्टर के उपदेशानुसार मैंने दोनों रोगियों को दवा दे दी और बच्चों को स्थानान्तरित करने की भी कोशिश की, परन्तु किसी को भी मैं उनका भार सँभालने के लिए राजी न कर सका।

सबेरे तक और एक लड़के को हैजा शुरू हो गया, उधर सतीश भारद्वाज की अवस्था भी उत्तरोत्तर खराब हो रही थी। बहुत खुशामद-बरामद के बाद एक आदमी को साँइथिया स्टेशन पर पंजाबी डॉक्टर को खबर देने के लिए भेजा। उसने शाम तक आकर खबर दी कि वे कहीं रोगी देखने चले गये हैं।

मेरे लिए सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि साथ में रुपये नहीं थे। और खुद कल से उपवास ही कर रहा था। सोना नहीं, आराम नहीं- खैर, यह नहीं तो न सही, पर पानी वगैर पीये कैसे जीऊँ? सामने की तलैया का पानी पीने के लिए सबको मना कर दिया था, पर किसी ने बात नहीं मानी। औरतों ने मन्द मुसकान के साथ बताया कि इसके सिवा पानी और है कहाँ डॉक्टर साहब? कुछ दूरी पर गाँव में पानी था, पर जाय कौन? ये लोग मर सकते हैं, पर बिना पैसे के यह व्यर्थ का काम करने को राजी नहीं।

इसी तरह, इन्हीं लोगों के साथ, मुझे मालगाड़ी पर ही दो दिन और तीन रात रहना पड़ा। किसी को भी बचा न सका, सभी रोगी मर गये, मगर मरना ही इस स्थिति में सबसे बड़ी बात नहीं। मनुष्य जन्म लेगा तो उसे मरना तो पड़ेगा ही; कोई दो दिन पहले तो कोई दो दिन पीछे- इस बात को मैं बड़ी आसानी से समझ सकता हूँ। बल्कि मेरी समझ में तो यह बात नहीं आती कि इस मोटी-सी बात के समझने के लिए मनुष्य को इतने वैराग्य-साधन और इतने प्रकार के तत्व-विचार की जरूरत आखिर क्यों होती है? लिहाजा, मनुष्य का मरना मुझे उतना चोट नहीं पहुँचाता जितना कि मनुष्यत्व की मौत। इस बात को मानो मैं कह ही नहीं सकता।

दूसरे दिन भारद्वाज का देहान्त हो गया। आदमियों की कमी से दाह-क्रिया न हो सकी, माता धारित्री ने ही उसे अपनी गोद में स्थान दिया।

उधर का काम मिटाकर फिर मालगाड़ी की तरफ लौट आया। न आता तो अच्छा होता, मगर ऐसा कर न सका। जनारण्य के बीच रोगियों को लेकर मैं बिल्कुहल अकेला बैठा था। सभ्यता के बहाने धनी का धन-लोभ मनुष्य को कितना हृदयहीन पुश बना सकता है, इस बात का अनुभव, इन दो ही दिनों में, मानो जीवन-भर के लिए मैंने इकट्ठा कर लिया।

प्रथम सूर्य के ताप से चारों ओर जैसे आग-सी बरसने लगी, उसी में तिरपाल की छाया के नीचे रोगियों के साथ बैठा हूँ। छोटा बच्चा कैसी भयानक तकलीफ से तड़पने लगा, उसकी कोई हद नहीं- एक घूँट पानी तक देने वाला कोई नहीं। सरकारी काम ठहरा, मिट्टी खोदना बन्द नहीं हो सकता, और मजा यह कि उन्हीं की जात का उन्हीं का लड़का है यह। गाँवों में देखा है कि हरगिज ये ऐसे नहीं हो सकते। मगर, यहाँ जो इन्हें अपने समाज से, घर से, सब तरह के स्वाभाविक बन्धनों से अलग करके सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक सिर्फ एक मिट्टी खोदने के लिए ही इकट्ठा करके लाया गया है और माल-गाड़ी में आश्रय दिया गया है, यहीं उनकी मानव-हृदय वृत्ति ऐसी नेस्तनाबूद हो गयी है कि उसका एक कण भी बाकी नहीं रहा। सिर्फ मिट्टी खोदना, मिट्टी ढोना और मजदूरी लेना। सभ्य समाज ने शायद इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है। कि मनुष्य को वगैर पशु बनाए उससे पशुओं का काम ठीक तौर से नहीं लिया जा सकता।

भारद्वाज चला गया, पर उसकी अमर-कीर्ति ताड़ी की दूकान ज्यों की त्यों अक्षय बनी है। शाम के वक्त क्या औरत और क्या मर्द, सभी कोई झुण्ड बाँधकर, ताड़ी पीकर घर लौटे। दोपहर का भात पानी में भिगोकर रख दिया गया था, लिहाजा औरतें रसोई बनाने के झंझट से भी फारिग थीं। अब भला कौन किसकी सुनता है? जमादार की गाड़ी से ढोल और मंजीरे के साथ संगीत-ध्व।नि सुनाई देने लगी। कब तक वह खत्म होगी, सो मेरी समझ में न आया। और, किसी के लिए उन्हें कोई फिकर नहीं, जो सोचते-सोचते सिर में दर्द होने लगे। मेरे ठीक पास के ही एक डब्बे में एक औरत के शायद दो प्रणयी आ जुटे थे; रात-भर उनकी उद्दाम प्रेमलीला, बिना किसी विश्राम के, समान गति से चलती रही। इधर, इस डब्बे में एक हजरत कुछ ज्यादा चढ़ा गये थे; वह ऐसे ऊँचे शोरगुल के साथ अपनी स्त्री से प्रणय की भीख माँगने लगे कि मारे शरम के मैं गड़-गड़ गया। दूर के एक डब्बे में एक स्त्री रह-रहकर और कराह-कराह कर विलाप कर रही थी। उसकी माँ जब दवा लेने आई, तो पता लगा कि कामिनी के बच्चा होने वाला है। लज्जा नहीं, शरम नहीं, छिपाने लायक इनके यहाँ कहीं भी कुछ नहीं, सब खुला हुआ, सब अनढँका, अनावृत्त। जीवन-यात्रा की अबाध गति बीभत्स प्रकटता में अप्रतिहत वेग से चली जा रही है। सिर्फ मैं ही एक अलग था। मृत्युलोक के आसन्न यात्री माँ और उसके बच्चे को लिये इस गम्भीर अन्धकारमय रात्रि में अकेला बैठा हुआ हूँ।

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